MSW से मोची: सरकारी नौकरी नहीं, तो क्या? आत्मनिर्भरता की मिसाल
MSW से मोची: हम अक्सर सफलता की कहानियाँ उन्हीं की सुनते हैं जिनके पास बड़ी डिग्रियाँ, सुविधाएँ और अवसर होते हैं. लेकिन असली प्रेरणा तो उन लोगों से मिलती है, जो सीमित संसाधनों में भी न केवल अपने लिए, बल्कि दूसरों के लिए भी रास्ता बनाते हैं. आज हम आपको ऐसे दो व्यक्तियों की कहानी बता रहे हैं, जिनकी जिंदगी ने उन्हें बार-बार तोड़ने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी.
पहली कहानी एक पढ़े-लिखे युवक की है, जिन्होंने Master of Social Work (MSW) की पढ़ाई पूरी की. उनका सपना था कि वे समाज सेवा के क्षेत्र में एक सरकारी नौकरी करें और कुछ बड़ा करें. उन्होंने कई सालों तक सरकारी नौकरी की परीक्षाएँ दीं, बार-बार असफल हुए. समय के साथ उम्र भी बढ़ती गई, और धीरे-धीरे नौकरी की संभावना लगभग समाप्त हो गई.
लेकिन इस युवा ने हार नहीं मानी. उसने अपने आत्मसम्मान को बनाए रखते हुए मोची का काम सीखा. यही काम आज उसका आजीविका का जरिया है. वह अब अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहा है, बिना किसी सरकारी सहायता के अपने हुनर और मेहनत के बल पर.
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दूसरी कहानी एक ऐसे शख्स की है, जिनके पूर्वज वर्षों से मोची का काम करते आ रहे हैं. उन्होंने अपने पुश्तैनी पेशे को अपनाया और जूते बनाने की कला में दक्ष हो गए. कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में उन्हें काम के लिए ‘गोमती’ नाम की एक छोटी सी जगह मिली थी, जहां वे सड़क किनारे अपना काम करते थे. लेकिन जैसे ही सरकार बदली, नई व्यवस्था में उन्हें कई बार उस स्थान से हटाया गया.
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आज भी वे इस संघर्ष से जूझ रहे हैं. उनका कहना है कि यदि सरकार थोड़ी-सी भी मदद कर दे, जैसे स्थायी काम करने की जगह या कुछ वित्तीय सहायता, तो वे इस हुनर को एक व्यवस्थित व्यवसाय में बदल सकते हैं. वे सिर्फ भीख नहीं, मौका चाहते हैं.
इन दोनों की कहानियां यह बताती हैं कि डिग्री या पैतृक पेशा कोई भी हो, असली पहचान मेहनत, हुनर और आत्मनिर्भरता से बनती है. ये वो लोग हैं जो सिस्टम से निराश तो हुए, लेकिन खुद से नहीं. जब जीवन ने रास्ता नहीं दिया, तो उन्होंने खुद रास्ता बनाया.