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Toggleखाकी का दर्द: सीधी की प्रधान आरक्षक सबिता साकेत की हत्या ने उठाए घरेलू हिंसा पर सवाल
खाकी का दर्द: मध्यप्रदेश के सीधी जिले से आई यह खबर सिर्फ़ एक हत्या की कहानी नहीं है, बल्कि समाज को झकझोर देने वाला वह कड़वा सच है कि कभी-कभी सबसे बड़ा खतरा घर के भीतर ही छुपा होता है. प्रधान आरक्षक सबिता साकेत, जिन्होंने खाकी पहनकर समाज की रक्षा की कसम खाई थी, वह खुद अपने ही घर की दीवारों के बीच असुरक्षित साबित हुईं. पति के हाथों हुई उनकी बेरहमी से हत्या ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर महिलाएं कब और कहाँ सुरक्षित हैं?
दर्दनाक रात की कहानी
सोमवार और मंगलवार की दरमियानी रात, करीब 3 बजे, सीधी जिले के पुलिस लाइन क्वार्टर से अचानक चीखों की आवाज़ सुनाई दी. यह आवाज़ थी 38 वर्षीय सबिता साकेत की, जो कमर्जी थाने में प्रधान आरक्षक के पद पर तैनात थीं. मामूली कहासुनी ने धीरे-धीरे खौफनाक रूप ले लिया.
पति वीरेंद्र साकेत (40) ने गुस्से पर काबू खो दिया और हाथ में आया बेसबॉल बैट उठा लिया. इसके बाद शुरू हुआ लगातार वार का सिलसिला—एक, दो, तीन… और तब तक हमला चलता रहा जब तक सबिता की सांसें हमेशा के लिए थम नहीं गईं. रात का अंधेरा और घर के भीतर का तांडव—किसी को भनक तक नहीं लगी.
सुबह का सदमा और पुलिस की कार्रवाई
सुबह जब यह खबर फैली, तो पूरा मोहल्ला सहम गया। लोग कहते रहे—“यकीन नहीं होता… इतनी बहादुर और समर्पित अफसर अपने ही घर में इतनी असुरक्षित थीं.”
सूचना मिलते ही कोतवाली थाना प्रभारी कन्हैया सिंह बघेल पुलिस बल के साथ मौके पर पहुंचे. घर के भीतर हर जगह खून के धब्बे, टूटी-फूटी चीजें और पसरी हुई खामोशी दिखाई दे रही थी. शव को जिला अस्पताल पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया और मामले की गंभीरता से जांच शुरू हुई. आरोपी पति के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज कर उसकी तलाश तेज कर दी गई.
खाकी की शहादत
सबिता साकेत सिर्फ एक पत्नी और माँ नहीं थीं, बल्कि खाकी की वह आवाज़ थीं जो हमेशा ड्यूटी पर मजबूती से खड़ी रहती थीं. उनकी मौत ने पूरे पुलिस महकमे को गहरे सदमे में डाल दिया. साथी अफसरों की आंखें नम हैं और हर किसी के मन में एक ही सवाल गूंज रहा है—
“अगर समाज की सुरक्षा करने वाली हमारी साथी खुद अपने घर में सुरक्षित नहीं, तो आम महिलाएं कितनी असुरक्षित होंगी?
घरेलू विवाद या गहरी खामोशी?
सूत्रों के मुताबिक, सबिता और वीरेंद्र के बीच लंबे समय से विवाद चल रहा था. अक्सर छोटे-छोटे मतभेद झगड़ों में बदल जाते थे और धीरे-धीरे यह दूरी गहरी होती गई.
यहां सवाल यह है—
क्या सिर्फ घरेलू विवाद इतनी बड़ी हत्या की वजह हो सकता है?
क्या रिश्तों में विश्वास की कमी और गुस्से पर नियंत्रण न होना इसका कारण है?
या फिर यह उस सामाजिक चुप्पी का परिणाम है, जो महिलाओं को अक्सर अकेला छोड़ देती है?
यह कहानी सिर्फ़ सबिता की नहीं
यह घटना हर उस महिला की कहानी है जो घर और बाहर दोनों जगह जिम्मेदारियों का बोझ उठाती है, लेकिन बदले में सुरक्षा नहीं पा पाती. यह हर उस महिला की दास्तान है जो घरेलू हिंसा झेलती है, लेकिन आवाज़ नहीं उठा पाती क्योंकि समाज इसे “निजी मामला” मानकर नजरअंदाज कर देता है.
सबिता का मामला इसलिए और भी गंभीर है क्योंकि वह पुलिस विभाग में थीं—यानी एक ऐसी महिला जिसने दूसरों की सुरक्षा का जिम्मा उठाया. लेकिन सवाल यह है कि जब खाकी पहनने वाली महिला भी सुरक्षित नहीं है, तो आम महिलाओं की हालत कितनी नाजुक होगी?
बच्चों और समाज पर असर
इस घटना ने सिर्फ पुलिस विभाग को ही नहीं, बल्कि एक पूरे परिवार को तोड़ दिया. माँ की मौत की खबर सुनकर बच्चे का रोना और साथी अफसरों का सलाम—यह दृश्य किसी भी दिल को तोड़ने के लिए काफी है.
सबिता के घर की दीवारें शायद अब भी उस रात की चीखों को समेटे खामोश खड़ी होंगी और उनकी खाकी वर्दी अब हमेशा खाली रहेगी.
समाज के लिए सबक
सबिता साकेत की मौत हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम कब तक घरेलू हिंसा को “परिवार का निजी मामला” कहकर नजरअंदाज करते रहेंगे. यह घटना हमें कई सबक देती है—
घरेलू विवाद को कभी हल्के में न लें.
हिंसा को रिश्तों का हिस्सा मानकर चुप न रहें.
समाज को बदलने की शुरुआत घर से करें.
अगर घर सुरक्षित नहीं होगा, तो बाहर की कोई भी सड़क, कोई भी दफ्तर और कोई भी वर्दी हमें सुरक्षा नहीं दे सकती.
आज खाकी रो रही है… और उसके आँसुओं का हिसाब समाज को देना होगा.”
प्रधान आरक्षक सबिता साकेत की हत्या सिर्फ़ एक महिला पुलिस अफसर की मौत नहीं है, बल्कि यह हमारी सामाजिक सोच, रिश्तों की कमजोरी और घरेलू हिंसा पर चुप्पी की नाकामी का प्रतीक है.
अगर हम ऐसी घटनाओं से सबक नहीं लेंगे, तो न जाने कितनी और “सबिता” घर की चारदीवारी के भीतर ही अपनी जिंदगी गंवा देंगी. बदलाव की शुरुआत हमें ही करनी होगी—क्योंकि सुरक्षित घर ही सुरक्षित समाज की नींव होता है.