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भारत में असमानता: भ्रमित करते आंकड़े या कड़वा सच?

भारत में असमानता: भ्रमित करते आंकड़े या कड़वा सच?

भारत में असमानता: भ्रमित करते आंकड़े या कड़वा सच?

भारत में असमानता: क्या भारत में आर्थिक असमानता घट रही है या फिर गहराती जा रही है? हालिया विश्व बैंक रिपोर्ट के अनुसार, उपभोग के आधार पर असमानता में गिरावट आई है. लेकिन आय और संपत्ति के संदर्भ में स्थिति इसके उलट दिखाई देती है. यह विरोधाभास आखिर क्यों है? आइए, इसे सरल भाषा में समझते हैं.


क्या उपभोग आधारित असमानता में वाकई कमी आई है?

विश्व बैंक के अनुसार, भारत में उपभोग आधारित गिनी गुणांक 2011-12 में 28.8 था, जो 2022-23 में घटकर 25.5 हो गया. गिनी गुणांक 0 से 100 के बीच होता है. 0 का मतलब पूर्ण समानता और 100 का अर्थ अत्यधिक असमानता होता है. इन आंकड़ों के अनुसार, भारत में उपभोग पर आधारित असमानता में कमी दर्ज की गई है.

लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि यह चित्र अधूरा है. उपभोग सर्वेक्षण अमीरों और सबसे गरीब तबकों को पूरी तरह से कवर नहीं करता. साथ ही, सर्वेक्षण की पद्धति में हुए बदलावों के कारण दोनों वर्षों के आंकड़ों की तुलना सीधी नहीं की जा सकती.


गिनी गुणांक: असमानता को मापने का पैमाना

गिनी गुणांक को लॉरेंज वक्र से प्राप्त किया जाता है, जो आय या उपभोग के वितरण को दर्शाता है. यदि वक्र समानता रेखा से दूर होता है, तो गिनी गुणांक अधिक होता है और इसका मतलब है कि असमानता ज्यादा है.

भारत में आय से संबंधित आंकड़े सीमित हैं, क्योंकि बड़ी आबादी अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत है. इसलिए उपभोग को आय का अनुमान लगाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. लेकिन अमीर वर्ग की बचत प्रवृत्ति और उनकी सर्वेक्षण में कम भागीदारी, असली असमानता को कम करके दर्शाती है.


जब उपभोग घटा, पर आय असमानता बढ़ गई

जहां एक ओर उपभोग आधारित गिनी गुणांक घटा है, वहीं आय आधारित गिनी गुणांक में वृद्धि हुई है. विश्व असमानता डेटाबेस और विश्व बैंक के अनुसार, 2004 में भारत का आय आधारित गिनी गुणांक 51 था, जो 2023 में बढ़कर 61 हो गया. इसका अर्थ है कि आय का बड़ा हिस्सा अब बहुत सीमित लोगों के पास केंद्रित हो गया है.


भारत में आय आंकड़ों की चुनौती

भारत में आय मापना आसान नहीं है. देश की बड़ी आबादी कृषि और असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है, जहां आय का आकलन करना जटिल होता है. उदाहरण के लिए, किसी किसान की आय जानने के लिए हमें उसकी मेहनत, लागत और बिक्री मूल्य को समझना होगा.

आयकर रिटर्न एकमात्र स्रोत बन जाते हैं, लेकिन भारत में केवल 7% लोग आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं और लगभग 5% लोग ही आयकर चुकाते हैं. इससे व्यापक आय असमानता का सही अनुमान लगाना मुश्किल हो जाता है.


शीर्ष 10% बनाम निचले 50% की आय

थॉमस पिकेती और अन्य अर्थशास्त्रियों द्वारा स्थापित विश्व असमानता लैब के अनुसार, 2023 में शीर्ष 10% भारतीयों की आय निचले 50% से 20 गुना अधिक थी. देश की कुल आय का 57.7% हिस्सा केवल शीर्ष 10% लोगों के पास है. यह भारत को विश्व के सबसे असमान देशों की श्रेणी में रखता है.

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उपभोग सर्वेक्षण की सीमाएं क्या हैं?

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) देश में उपभोग के आधार पर आंकड़े जुटाता है. इसमें यह देखा जाता है कि घरों ने भोजन, किराया, बिजली, स्वास्थ्य और शिक्षा पर कितना खर्च किया. लेकिन बेघर लोग, प्रवासी मज़दूर या अत्यंत अमीर लोग इस सर्वेक्षण में अक्सर शामिल नहीं हो पाते.

2011-12 में एक बार की मुलाकात में सभी खर्चों की जानकारी ली जाती थी. लेकिन अब इसे तीन चरणों में किया जाता है – खाने का खर्च, फिर कपड़े आदि, और अंत में टिकाऊ वस्तुएं. इससे आंकड़े अधिक सटीक होते हैं, लेकिन पुराने और नए आंकड़ों की तुलना कठिन हो जाती है.


गरीबी और रोजगार का आकलन कैसे होता है?

गरीबी रेखा उपभोग के आंकड़ों से तय होती है. लेकिन नई सर्वेक्षण विधियों से उच्च खर्च सामने आते हैं, जिससे पुरानी गरीबी रेखा कमज़ोर पड़ जाती है. इसके विपरीत, बहुआयामी गरीबी में शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर जैसे कारकों को शामिल किया जाता है.

सरकार का कहना है कि जन धन, DBT और आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं ने गरीबी को कम किया है. लेकिन इंडिया स्पेंड की 2023 रिपोर्ट के अनुसार, देश में गरीबी को लेकर पांच भिन्न-भिन्न अनुमान हैं. यहां तक कि गरीबी रेखा से ऊपर रहने वाले लोग भी बुनियादी सेवाओं से वंचित हैं.


विशेषज्ञ क्या कहते हैं?

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जयति घोष के अनुसार, आय और संपत्ति में असमानता उपभोग की तुलना में कहीं ज्यादा गंभीर है. भारत मानव विकास सर्वेक्षण (NCAER) जैसे अध्ययनों में पाया गया है कि आय असमानता, उपभोग असमानता से कई गुना अधिक है.

पी.सी. मोहनन, पूर्व सांख्यिकी आयोग प्रमुख, मानते हैं कि नई सर्वेक्षण विधि अधिक सटीक है, लेकिन इसकी तुलना पुराने आंकड़ों से करना चुनौतीपूर्ण है. इसके अलावा, अमीरों की छुपी हुई संपत्ति – जैसे विदेशी खातों या महंगी कलाकृतियों – को शामिल नहीं किया जाता.


क्या असमानता वास्तव में घट रही है?

जहां उपभोग से जुड़ी रिपोर्टें असमानता में गिरावट दर्शाती हैं, वहीं आय और संपत्ति के आंकड़े इसके विपरीत कहानी बताते हैं. सबसे अमीर 10% लोग देश की आधी से ज्यादा आय कमा रहे हैं, जबकि सबसे गरीब 50% लोगों के हिस्से में उसका एक छोटा टुकड़ा ही आता है.

सर्वेक्षण की सीमाएं और लगातार बदलती पद्धतियाँ, इस पूरे विश्लेषण को और अधिक जटिल बना देती हैं. ऐसे में सवाल यही है – क्या भारत में आर्थिक समानता की दिशा में कोई ठोस बदलाव हो रहा है, या फिर आंकड़े सिर्फ एक भ्रम पैदा कर रहे हैं?

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