भारत दुनिया का सबसे बड़ा दाल उत्पादक देश है, फिर भी हर साल लाखों टन दालें आयात करता है. भारत में दालों की कीमतों में लगातार उतार-चढ़ाव देखा जाता है. इसका प्रमुख कारण है दालों का अस्थिर उत्पादन, जो जलवायु परिवर्तन, सिंचाई की कमी और सरकारी प्राथमिकताओं के अभाव के कारण प्रभावित होता है. जब घरेलू उत्पादन मांग के मुकाबले कम हो जाता है, तो देश को दालों का आयात करना पड़ता है, जिससे कीमतें बढ़ जाती हैं.
किसानों की परेशानियां
आंध्र प्रदेश के प्रकाशम जिले में रहने वाले किसान जे. वेंकट नारायण पिछले सात वर्षों से अरहर की खेती कर रहे हैं. लेकिन अब अनियमित बारिश और बढ़ती गर्मी ने उनकी मेहनत पर पानी फेर दिया है. इसी तरह इपुरु गांव की एक महिला किसान बताती हैं कि मौसम का मिजाज अब समझ से बाहर हो गया है — फरवरी से ही गर्मी, और मानसून के महीनों में भी सूखा. इन अनुभवों से साफ है कि किसानों की समस्या सिर्फ पैदावार की नहीं, बल्कि जलवायु की क्रूरता से भी जुड़ी है.
भारत और दालें: सिर्फ खाना नहीं, पोषण भी
- भारत वैश्विक दाल उत्पादन का 25% हिस्सा रखता है.
- दालें प्रोटीन का एक सस्ता और टिकाऊ स्रोत हैं.
- ग्रामीण भारत में दालें मुख्य प्रोटीन स्रोत हैं.
- इनका नाइट्रोजन फिक्सिंग गुण मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाता है.
कृषि विशेषज्ञ नरसन्ना कोप्पुला कहते हैं,
“दालें सिर्फ फसल नहीं, हमारी परंपरा और मिट्टी की जान हैं.”
दाल उत्पादन में गिरावट के कारण
- हरित क्रांति का प्रभाव
1960-70 के दशक में गेहूं और चावल को प्राथमिकता दी गई, जिससे दालें पीछे रह गईं.
- कमजोर भूमि और सिंचाई
दालें मुख्यतः सूखी, कम उपजाऊ ज़मीनों पर उगाई जाती हैं — जहाँ सिंचाई की सुविधा बेहद कम है.
- जलवायु परिवर्तन
- 87% दाल उत्पादन बारिश पर निर्भर है.
- बारिश का समय और मात्रा अब अनिश्चित हो गए हैं.
- अधिक गर्मी और असमय बारिश परागण को प्रभावित करती है.
- नए कीट और बीमारियाँ भी उत्पादन घटा रही हैं.
आयात का बढ़ता बोझ और बाज़ार की अस्थिरता
भारत हर साल लगभग 2.5 मिलियन टन दालें आयात करता है.
NITI Aayog के अनुसार,
2032-33 तक मांग 35.23 मिलियन टन होगी, जबकि आपूर्ति 33.95 मिलियन टन तक ही सीमित रहेगी।
सरकार गेहूं-चावल की तरह दालों को MSP पर नहीं खरीदती, जिससे किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है. यही कारण है कि वे दालों की बजाय अन्य फसलों की ओर रुख कर रहे हैं.