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Silicosis: ग्राइंडर अस्थमा, माइनर फ़ेथिसिस के शिकार हो रहे हैं आप, जानिए बीमारी के लक्षण और बचाव

भारत के विकास लक्ष्यों ने खनन उद्योग (Mining Industry) को तेजी से बढ़ावा दिया है. निर्माण कार्यों में उपयोग के लिए सिलिकॉन डाइऑक्साइड जैसे खनिजों की ज्यादा से ज्यादा खुदाई की जा रही है. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक लंबे समय तक सिलिका धूल के संपर्क में रहने से खदानों में काम करने वाले मजदूरों को सिलिकोसिस (Silicosis) नामक गंभीर बीमारी (Disease) हो रही है. इससे मृत्यु (Death) का खतरा बढ़ रहा है. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने 1999 में बताया था कि उस समय भारत में 80 लाख से ज्यादा लोग सिलिका धूल के संपर्क में थे. वर्तमान में करोड़ों की संख्या में लोग सिलिका धूल के संपर्क में आने से बीमार हो रहे हैं. ऐसे में आज के इस आर्टिकल के माध्यम से हम जानेंगे कि सिलिकोसिस बीमारी क्या है और इससे बचने के क्या उपाय हैं.

बता दें कि सिलिकॉन डाइऑक्साइड को आमतौर पर सिलिका कहा जाता है. यह पृथ्वी पर प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला खनिज है. सिलिकॉन डाइऑक्साइड का उपयोग विभिन्न उद्योगों के निर्माण कार्य जैसे कंक्रीट, सीमेंट और कांच बनाने में किया जाता है. खाद्य पदार्थों जैसे नमक, मसाले और चीनी में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है. स्किन केयर और ब्यूटी प्रोडक्ट्स बनाने के साथ इलेक्ट्रॉनिक्स और औद्योगिक क्षेत्रों में भी सिलिकॉन डाइऑक्साइड का इस्तेमाल किया जाता है. खास बात यह है कि सिलिकॉन डाइऑक्साइड हमारे लिए जितना उपयोगी है उतना ही खतरनाक भी है. खदानों में काम करने वाले मजदूर अक्सर सिलिका के महीन कणों के संपर्क में आ जाते हैं. जिससे उन्हें सिलिकोसिस नामक गंभीर बीमारी हो सकती है. यह शरीर के लिए बहुत हानिकारक होता है.

भारत में सिलिकोसिस
भारत में सबसे कम रिपोर्ट की जाने वाली सिलिकोसिस व्यावसायिक बीमारी है. इसलिए ही इसे ग्राइंडर अस्थमा या माइनर फ़ेथिसिस के नाम से जानते हैं. सिलिका के धूल कण पांच माइक्रोन से भी ज्यादा छोटे होते हैं. इन कणों को नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता है. यह बीमारी उन उद्योगों में काम करने वालों में सबसे आम है जो सिलिका धूल के सीधे संपर्क में आते हैं – जैसे खनन, पत्थरों की कटाई, पीसना, नक्काशी, ढलाई, कांच, और चीनी मिट्टी के निर्माण, स्लेट-निर्माण, एगेट पत्थर और नकली आभूषण, मंदिर में पत्थर-नक्काशी का कार्य शामिल है.

सिलिकोसिस बीमारी के लक्षण
सिलिकोसिस बीमारी के लक्षणों में लगातार खांसी आना, सांस फूलना, सीने में दर्द, थकावट और कमजोरी, फेफड़ों में संक्रमण का खतरा जैसे टीबी शामिल है. सिलिका धूल के कारण रोगी के फेफड़ों के अंदर रेशेदार गांठें और निशान बन जाते हैं. ऑक्सीजन का प्रवेश धीरे-धीरे मुश्किल होता जाता है और दम घुटने से मौत हो जाती है. इस बीमारी की गिरफ्त में आने से रोगी के फेफड़े पत्थर की तरह ठोस होने लगते हैं. इस बीमारी से पीड़ित व्यक्ति के फेफड़े अंतिम संस्कार में आसानी से नहीं जलते हैं.

सिलिकोसिस बीमारी के तीन प्रकार
1. क्रॉनिक सिलिकोसिस 10-20 साल तक सिलिका धूल के संपर्क में रहने से होती है.
2. एक्सेलेरेटेड सिलिकोसिस 5-10 साल तक सिलिका धूल के संपर्क में रहने से होती है.
3. एक्यूट सिलिकोसिस बहुत ज्यादा मात्रा में सिलिका धूल के संपर्क में आने पर कुछ ही महीनों या सालों में हो जाती है.

बीमारी के आंकड़े
भारत में सिलिकोसिस संकट का आंकड़ा चौंका देने वाला है. 1999 में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की एक रिपोर्ट ने अनुमान लगाया था कि 5.4 मिलियन निर्माण श्रमिकों के अलावा, अन्य उद्योगों में तीन मिलियन श्रमिक सिलिका के संपर्क में आने के उच्च जोखिम में थे. ये आंकड़े दो दशक से ज्यादा पुराने हैं, ऐसे में वर्तमान में इसके कितने अधिक केस होंगे इसका अनुमान लगाना लगभग असंभव है. हैरान करने वाली बात यह है कि इस बीमारी का अध्ययन करने के लिए अभी तक कोई राष्ट्रीय प्रयास नहीं किया गया है. शोधकर्ताओं का अनुमान है की 2025 तक सिलिकोसिस के संक्रमण से पीड़ित भारतीय श्रमिकों की संख्या 52 मिलियन तक पहुंच सकती है.

सिलिकोसिस का उपचार
सिलिकोसिस के शिकार, को अक्सर टीबी से ग्रसित समझ कर गलत निदान दिया जाता है. दोनों ही बीमारियां एक दूसरे से काफी अलग हैं. लेकिन सिलिकोसिस के लक्षण टीबी से मिलते जुलते होने के कारण गलत उपचार कर दिया जाता है. कई बार डॉक्टरों को भी सिलिकोसिस के बारे में पूरी तरह से जानकारी नहीं होना भी इस बीमारी को बढ़ावा देता है. इस बीमारी से बचने के लिए कुछ उपाय किये जा सकते है जैसे कार्यस्थल पर सुरक्षा उपाय करना, मास्क और रेस्पिरेटर का उपयोग करना, कार्यक्षेत्र में धूल नियंत्रण तकनीक अपनाना और मजदूरों के लिए नियमित स्वास्थ्य जांच कराने से इस बीमारी से राहत मिल सकती है. इस बीमारी को लेकर जागरूकता फैलाना काफी जरूरी है ताकि इस बीमारी का सही तरीके से निदान हो सके.

राज्य सरकारों की सिलिकोसिस मुआवजा नीति
सिलिकोसिस के खिलाफ राजस्थान और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में जन आंदोलनों ने इस गंभीर समस्या पर सरकार और समाज का ध्यान खींचा है. इन आंदोलनों ने सिलिकोसिस से प्रभावित श्रमिकों के लिए जागरूकता बढ़ाने, मुआवजे की मांग करने और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की दिशा में सकारात्मक प्रभाव डाला है. राजस्थान सरकार ने सिलिकोसिस से पीड़ित व्यक्तियों के लिए मुआवजा नीति लागू की है. जिसमें 2 लाख तक का मुआवजा और गंभीर रूप से बीमार मरीजों के लिए 3 लाख तक की राशि निर्धारित की गई है. साथ ही पीड़ितों की पहचान के लिए विशिष्ट एजेंसियों और अस्पतालों को भी जिम्मेदारी दी गई है.

सिलिकोसिस बीमारी की बारे में पूरी जानकारी के लिए देखिए ये वीडियो।।