मऊगंज ज़िले के बघैला गांव में रहने वाले 60 वर्षीय अशोक कुमार सिंह की 1 अगस्त की सुबह तबियत अचानक खराब हो गई. तब परिवार ने तुरंत 108 एंबुलेंस सेवा पर कॉल किया, लेकिन वहां से जवाब आया, अभी दो घंटे लगेंगे यह जबाव सुनकर गांव के लोगों को समझ आ गया कि एंबुलेंस का इंतजार करना वक्त जाया करना अब जानलेवा हो सकता है. वक्त की नज़ाकत को देखते हुए गांव वालों ने किसी सरकारी मदद का इंतज़ार नहीं किया. उन्होंने अशोक सिंह को खटिया पर लिटाया, ऊपर से तिरपाल ढका, और गांव की कीचड़ भरी गलियों से खींचते हुए सड़क तक लाए.
खाट पर मध्यप्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था
यह दृश्य अपने आप में हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था पर करारा तमाचा था. एक बीमार इंसान को मानवता की बजाय मेहनत से खींचकर अस्पताल की ओर ले जाया गया. गांव के मनीष मिश्रा ने अपनी निजी गाड़ी में उन्हें लेकर मऊगंज सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचाया. लेकिन वहां ड्यूटी पर मौजूद डॉक्टर पंकज पांडे ने मरीज को देखने से ही मना कर दिया.
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इलाज के लिए दर-दर भटकता रहा मरीज
परिजनों के मुताबिक डॉक्टर ने कहा, ये हमारा मामला नहीं है, मरीज को हनुमना ले जाइए. ना कोई जांच, ना प्राथमिक उपचार, ना एक पर्ची, बल्कि आरोप ये भी है कि डॉक्टर ने पर्ची फाड़ने की धमकी दी. इलाज के बाद ही रेफर किया जा सकता है. लेकिन इस मामले में न प्राथमिक उपचार हुआ, न रेफर बस सीधा इनकार. जब मामले पर सवाल उठाए गए तो ब्लॉक मेडिकल ऑफिसर (BMO) प्रद्युम्न शुक्ला ने खुद माना कि – मरीज को न देखा गया,न भर्ती किया गया,और न ही रेफर किया गया. उन्होंने सिर्फ औपचारिक कार्रवाई का हवाला देकर जवाब टाल दिया.
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अशोक कुमार सिंह की अब तक शादी नहीं हुई थी. वे अपने भाई के साथ रहते थे. जब उनकी जान पर बन आई, तब न कोई सरकारी गाड़ी आई, न डॉक्टर, न अफसर. उनके साथ सिर्फ गांव के लोग खड़े रहे — वो भी तंत्र की नाकामी के बावजूद क्या इस देश की स्वास्थ्य व्यवस्था सिर्फ कागजों पर “स्वस्थ भारत” का सपना दिखाती है? क्या गांव में रहने वाला, गरीब इंसान इंसान नहीं रह जाता, जब उसकी ज़िंदगी और मौत सिस्टम के भरोसे होती है? ये घटना किसी एक गांव या एक मरीज की नहीं ये पूरे सिस्टम के फेल होने की सबसे ज़िंदा मिसाल है. आज भले अशोक सिंह जीवित हैं या नहीं लेकिन उनकी तरह कई लोग सिस्टम के इंतज़ार में दम तोड़ देते हैं.
मऊगंज से लवकेश सिंह की रिपोर्ट..