आपने एक कहावत सुनी होगी कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. इसका मतलब हुआ कि अकेला व्यक्ति बड़ा काम नहीं कर सकता है. लेकिन विंध्य के रीवा (Rewa) की रहने वाली सिया दुलारी कोल (Siya Dulari Kol) ने इस कहावत को बदल दिया है. पति के छोड़ने के बाद अकेली महिला ने 3 बच्चों का लालन – पालन करने के साथ समाज के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत किया है. यही कारण है कि दिल्ली हो या फिर भोपाल हर कोई सिया दुलारी को जानता है. ऐसे में आपको भी सिया दुलारी के संघर्ष की कहानी जाननी चाहिए. सिया दुलारी बताती हैं कि जब दिल्ली या फिर भोपाल जाती थी तो एक तरफ बैग रहता था और एक तरफ बेटा रहता था, बहुत दिक्कतें होती थीं.
बचपन में मेरे पिताजी और मेरे भाई मुझे पढ़ाने (Education) के लिए स्कूल भेजते थे. तब लोगों ने हमारा खूब विरोध किया. उस समय वहां पर कोल आदिवासी (Kol tribe) की कोई बेटी पढ़ी लिखी नहीं थी तो पिताजी सोचते थे कि बे हमारे बच्चे भी कुछ पढ़ लें. लेकिन हमारे गांव में स्कूल नहीं थी, ऐसे में वहां से दो किलोमीटर दूर पर हमारे गांव के सामान्य वर्ग के लोगों के बच्चे पढ़ने जाते थे. तो वहां जाकर के हमारे पिताजी ने मेरा और मेरे भाई का नाम स्कूल में लिखवाया. चबूतरे में पेड़ के नीचे हम पढ़ते थे. हमें पढ़ाने के लिए एक टीचर थीं लेकिन वहां बैठने के लिए कुर्सी नहीं थी. मजबूरी में उनको बैठने के लिए चारपाई दी जाती थी.
जिस चबूतरे में हम पढ़ाई करते थे उस चबूतरे को लीपने की बारी हमेशा हम लोगों की ही आती थी. हम लोग टोकरी में गोबर लाकर के और बाल्टी में पानी लाकर के चबूतरे को लीपते थे. मैं आदिवासी परिवार की लड़की थी और एक गरीब परिवार से मेरा ताल्लुक था. उस दौर में हमारे यहां भेदभाव बहुत चलता था, छुआछूत इतना था कि हम लोग किसी के घर की चौखट तक नहीं चढ़ सकते थे.
मजदूरी करके पढ़ाया
सिया कुमारी की मां और पिता मजबूरी करके अपने बच्चों को पढ़ाया. बहुत सारे लोग हमारे पिताजी को ताना मारते थे कि बेटी को क्यों पढ़ा रहे हो. गाय भैंस चराए या फिर खेत काटे तो डेढ़ किलो अनाज मिलेगा, तो खाने को होगा. सिया के पिता ने कहा कि हम गाय भैंस नहीं चरवा पाएंगे. हमारी बेटी स्कूल जाएगी. अपना और गांव का नाम लिख लेगी.
पति करता था पिटाई
सिया बताती हैं कि उसके पति पढ़े लिखे थे. समझदार भी थे. लेकिन लोगों के कहने पर मुझे मारते पीटते थे.कई बार ऐसा हुआ कि खाना नहीं बन पाया, थोड़ा लेट हो जाने पर भी मारते थे. घर का कोई काम भी नहीं करते थे जब भी मन करता तो गांव घूमने चले जाते थे. हमेशा टॉर्चर करते थे. इतना ही नहीं दहेज के लिए कहते थे कि तुम्हारे माता पिता ने दिया ही क्या है.
पढ़ाई के साथ संभाल रही थी बच्चे
सिया दुलारी बताती हैं कि पढ़ाई के साथ में जो हमारे समाज का काम था तो उसे करने के साथ-साथ बच्चों को भी पाल रही थी. इस बीच पढ़ाई तो चलती रही लेकिन पति ने साथ छोड़ दिया. इससे बच्चों को भी काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा. बच्चों से स्कूल में कई बार टीचर पूछता था कि तुम्हारे पापा क्या करते हैं, कहां सर्विस करते हैं. तो बच्चे अपनी मम्मी का ही नाम बताते थे. सिया की बेटी गर्व से कहती थी कि मेरी मां एनजीओ चलाती है.
समाज के अधिकार के लिए शुरू किया लड़ना
सिया बताती हैं कि जब हम अपने लिए नहीं लड़ सकते हैं तो दूसरों के अधिकारों के की हम बात कैसे कर सकते हैं. ऐसे में सिया ने चाइल्ड लाइन से जुड़कर क्राई नाम की संस्था के साथ काम करना शुरू कर दिया. बाद में उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य, जल, जंगल, जमीन और कुपोषण पर काम करना शुरू किया. सिया ने आगे चलकर खुद की संस्था बनाई. इस संस्था का उद्देश्य समाज के वंचित समुदाय को सशक्त करना और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, महिला, बच्चे, युवा और किशोरियों को सशक्त करना था. इसके लिए गांव-गांव में जाकर के मीटिंग बैठक करके, सरकार और प्रशासन के साथ इन मुद्दों पर संवाद करती थी.
कुपोषण से मिला छुटकारा
रीवा जिले के जवा ब्लॉक में 50 गांव ऐसे हैं जहां की महिलाएं, किशोरियां, बच्चे, युवा और समुदाय के लोग अपनी बात तक बोल नहीं पाते थे. आज वह अपने हक की लड़ाई के लिए आगे आ रहे हैं. कम से कम 99 प्रतिशत लोगों के जीवन में बदलाव की स्थिति देखने को मिली है. आज कई गांवों में ऐसा हुआ है कि जो अब कुपोषण मुक्त हो चुके हैं.
सिया के संघर्ष की पूरी कहानी जानने के लिए देखिए ये वीडियो।।