यह एक लोकनृत्य है जिसे “अहिराई लाठी” के नाम से जाना जाता है. इस नृत्य को प्रायः अहिर (यादव) समुदाय के लोग करते हैं. इस नृत्य को विशेषकर पुरुष वर्ग ही किया करते हैं. त्रेता युग में इसका विस्तृत वर्णन किया गया है. ऐसा कहा जाता है कि जब भगवान कृष्ण गोकुल छोड़कर मथुरा जा रहे थे. तब उस वक्त भगवान कृष्ण के अनुयायियों ने भी गोकुल छोड़ दिया और देश के विभिन्न हिस्सों में अपनी लाठी साथ लेकर चले गए.
पहले के जमाने में अहिर समुदाय के लोग बिना लाठी के कहीं नहीं जाते थे. इसलिए वो जहां भी जाते अपनी लाठी अपने साथ लेकर ही जाते थे. उनकी यह लाठी महज लाठी ही नहीं होती बल्की उसी की मदत से वो अपनी कलाएं भी करते हैं.
संभवतः उसी समय से अहिराई लाठी लोकनृत्य भी विन्ध्य में आया होगा. यह नृत्य बुंदेलखंड में भी देखे जाते हैं. एकादशी डिठोन के दिन ये सारे नर्तक पूरे गांव के प्रत्येक घर में अनुष्ठान करते है. इस दिन पूरे गांव का दूध इनका ही होता है. इस अनुष्ठान को गाय जगाना या सिद्ध करना भी कहते हैं. यह अनुष्ठान रात भर चलता है इस अनुष्ठान में वाद्ययंत्रो के साथ लाठी की भी पूजा होती है.
युगों-युगों से लेकर आज तक ये परंपरा चलती आ रही है. आहिराई लाठी नृत्य एक तरह का मार्शल आर्ट ही है. बाद में यह युद्ध कला नृत्य कला के रूप में परिवर्तित हो गया. इस नृत्य में दो से चार पुरुष लाठी से युद्ध कला को नृत्य रूप में दिखाते है और इनके सहायक के रूप में नगरिया मांदल वादन किया जाता है. साथ ही में बांसुरी की ध्वनि इसे और अधिक मनमोहक बनाती है.