तमिलनाडु और केंद्र सरकार के बीच एक बार फिर भाषा नीति को लेकर विवाद गहरा हो गया है. इस बार केंद्र की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP-2020) और उसमें शामिल त्रिभाषा फार्मूले को लेकर राजनीतिक और शैक्षिक बहस तेज हो गई है.
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखते हुए आरोप लगाया कि केंद्र सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में राज्य के लिए जरूरी 2,152 करोड़ रुपये की राशि अब तक जारी नहीं की है. यह राशि शिक्षा का अधिकार अधिनियम और सरकारी स्कूलों के बुनियादी ढांचे को सुधारने के लिए जरूरी है.
इस बीच केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान का बयान विवादों में आ गया, जिसमें उन्होंने कहा कि जब तक तमिलनाडु राष्ट्रीय शिक्षा नीति और त्रिभाषा फार्मूले को लागू नहीं करता, तब तक समग्र शिक्षा अभियान के तहत फंड नहीं मिलेगा.
तमिलनाडु की आपत्ति: सिर्फ दो भाषा फार्मूला
तमिलनाडु सरकार ने स्पष्ट किया है कि वह दो भाषा फार्मूले (तमिल और अंग्रेज़ी) पर कायम रहेगी और तीसरी भाषा (हिंदी) को शामिल करने की कोई योजना नहीं है. सरकार का तर्क है कि शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में आती है, जहां केंद्र और राज्य दोनों की भूमिका है, लेकिन जबरदस्ती किसी नीति को थोपना असंवैधानिक है.
राज्य सरकार का यह भी कहना है कि तीसरी भाषा लागू करने से छात्रों पर अतिरिक्त बोझ बढ़ेगा, जबकि स्कूल संसाधनों की पहले ही कमी है. इसके साथ ही तमिलनाडु का इतिहास हिंदी विरोधी आंदोलनों से जुड़ा रहा है, जिससे यह मुद्दा और संवेदनशील बन जाता है.
त्रिभाषा फार्मूला: एक पुरानी नीति, नया विवाद
त्रिभाषा फार्मूला पहली बार 1968 में इंदिरा गांधी सरकार की शिक्षा नीति के तहत सामने आया था. इसका उद्देश्य था कि हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी, अंग्रेज़ी और एक दक्षिण भारतीय भाषा पढ़ाई जाए, जबकि गैर-हिंदी राज्यों में क्षेत्रीय भाषा, अंग्रेज़ी और हिंदी को शामिल किया जाए.
हालांकि, तमिलनाडु इस फार्मूले के शुरू से खिलाफ रहा है और वहां दो भाषा फार्मूला ही लागू है. राज्य सरकार का आरोप है कि त्रिभाषा फार्मूले के ज़रिए हिंदी थोपने की कोशिश की जा रही है, जबकि वास्तविकता यह है कि उत्तर भारत के हिंदी भाषी राज्यों में भी यह फार्मूला प्रभावी रूप से लागू नहीं हुआ है.
कहां सफल हुआ त्रिभाषा फार्मूला?
अगर पूरे भारत की बात करें तो केवल 7.1% लोग ही तीन भाषाएँ बोलते हैं। द्विभाषी आबादी 24.79% है. गोवा, पूर्वोत्तर भारत और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में द्विभाषावाद और त्रिभाषावाद बेहतर स्थिति में है. हिंदी पट्टी में यह अनुपात काफी कम है – अक्सर 10% से भी नीचे.
हिंदी भाषी राज्यों जैसे बिहार, उत्तर प्रदेश, और राजस्थान में शिक्षण माध्यम लगभग पूरी तरह हिंदी है, और तीसरी भाषा की उपस्थिति नाममात्र है. इसके चलते सवाल उठता है कि यदि त्रिभाषा फार्मूला इतना कारगर है, तो उसे पहले इन राज्यों में लागू क्यों नहीं किया गया?
अर्थव्यवस्था और भाषा का संबंध
एक दिलचस्प ट्रेंड यह है कि जिन राज्यों में अंग्रेज़ी बोलने वालों की संख्या अधिक है, वहां आर्थिक विकास और रोजगार के अवसर भी बेहतर हैं. उदाहरण के तौर पर तमिलनाडु और केरल में अंग्रेज़ी का अच्छा प्रसार हुआ है और साथ ही वहाँ की मानव विकास सूचकांक (HDI) भी उच्च है.
इसके विपरीत, हिंदी पट्टी में अंग्रेज़ी जानने वालों की संख्या घट रही है, जिससे लोगों को भाषाई बाधाओं का सामना करना पड़ता है. हरियाणा जैसे राज्यों में 1991 में 17.5% लोग अंग्रेज़ी जानते थे, जो 2011 में घटकर 14.6% रह गए. वहीं तमिलनाडु में अंग्रेज़ी बोलने वालों की संख्या बढ़ी है.
क्या त्रिभाषा फार्मूला शिक्षा सुधार का रास्ता है या राजनीतिक एजेंडा?
यह बहस केवल भाषा की नहीं, बल्कि शिक्षा की प्राथमिकताओं की भी है. तमिलनाडु का कहना है कि आज के समय में छात्रों को कंप्यूटर, गणित, विज्ञान और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे कौशल सिखाना ज़्यादा ज़रूरी है, बजाय एक नई भाषा जोड़ने के.
केंद्र सरकार जहां त्रिभाषा फार्मूले को राष्ट्रीय एकता और शिक्षा सुधार के रूप में प्रस्तुत करती है, वहीं तमिलनाडु इसे एक सांस्कृतिक हस्तक्षेप मानता है.