तानसेन का रीवा रियासत से गहरा नाता रहा है. वह रीवा राजदरबार की शान थे. रीवा राजघराने के गायक तानसेन की आवाज सुनने वाला हर कोई मुरीद हो जाता था. ऐसे में जब बादशाह अकबर ने जब तानसेन की आवाज सुनी तो अपना दिल हार गए. दरअसल गीत-संगीत के शौकीन बादशाह अकबर एक बार रीवा आए थे. इसी दौरान उन्होंने तत्कालीन रीवा रियासत के राजा रामचंद्र सिंह जूदेव से तानसेन को अपने दरबार की शोभा बढ़ाने के लिए मांग लिया. ऐसे में तानसेन के बदले अकबर ने रीवा रियासत के राजा रामचंद्र जूदेव को मनसबदार की उपाधि दी. इसके साथ ही कई घोड़े और हथियार भी भेंट किए. इन हथियारों में मुगल सल्तनत की मुहर लगी विशेष तोपें भी शामिल थीं जो आज भी रीवा के किला की शोभा बढ़ा रही हैं. अकबर के दरबार के 18 में से ग्यारह गवैयों का ताल्लुक ग्वालियर से ही था. उनमें सबसे बड़ा नाम उस्ताद तानसेन का था.
तानसेन, ग्वालियर के निकट में एक गांव के रहने वाले थे. उनके पिता मकरंद पांडे गौड़ ब्राह्मण थे. विवाह के कुछ सालों तक मकरंद पांडे को कोई संतान नहीं थी. ऐसे में एक बार उन्होंने हज़रत मोहम्मद ग़ौस से विनती की कि वे ख़ुदा से दुआ करें कि उन्हें संतान प्रदान करें. मकरंद को हज़रत मोहम्मद ग़ौस ग्वालियरी से बड़ी श्रद्धा थी. इसके बाद ही तानसेन का जन्म हुआ. तानसेन का बचपन का नाम रामतनु पांडे था. बता दें कि उस्ताद तानसेन, भारत में एक ऐसे संगीतकार रहे हैं, जिनके मरने के बाद उनकी क़ब्र पर बेरी का एक पौधा उग आया, बाद में यह विशाल पेड़ बन गया. खास बात यह है कि संगीत सीखने वाले लोग आज भी उनकी क़ब्र पर जाते हैं और उस बेरी के पेड़ के पत्ते खाते हैं. लोगों का कहना है कि पत्ते खाने से आवाज़ सुरीली होती है.
ग्वालियर घराना का इतिहास
शास्त्रीय संगीत में ‘ग्वालियर घराना’ की एक अद्भुत शान और ठाठ है. शुरू में इस घराने ने ‘ध्रुपद गायकी’ में अपनी गहरी छाप छोड़ी और बाद में इसी रियासत के लोग ‘ख़याल गायकी’ की ओर मुड़े. उन्होंने ख़याल गायकी की भी एक अलग शैली का आधार रखा जो उस रियासत के नाम के अनुरूप ‘ग्वालियर घराना’ भी कहलाया. खास बात यह है कि मुग़ल सम्राट जलालुद्दीन अकबर के काल में ग्वालियर संगीत कला का बड़ा केंद्र समझा जाता था. राजा मान सिंह तोमर (1486- 1516) ने एक एकेडमी स्थापित की थी, जिसमें नायक बख़्शू जैसे अद्वितीय विशेषज्ञ संगीत कला की शिक्षा देने के लिए नियुक्त थे. नायक बख़्शू ‘ध्रुपद’ के बड़े विशेषज्ञ माने जाते थे और उत्तर भारत के संगीतज्ञों पर इसका प्रभाव शाहजहां के काल तक हावी रहा. मान सिंह तोमर, नायक बख़्शू, सुल्तान आदिल शाह सूरी और हज़रत मोहम्मद ग़ौस ग्वालियरी के ध्यान से ग्वालियर की गिनती संगीत के ख़ास केंद्रों में होने लगी थी.
हज़रत मोहम्मद ग़ौस की देखरेख में रहे तानसेन
हज़रत मोहम्मद ग़ौस ने अपने बेटों की तरह तानसेन का लालन-पालन किया. ग्वालियर के नामी-गिरामी संगीतज्ञों की देख-रेख में उन्हें संगीत की शिक्षा दिलवायी. तानसेन ने कुछ समय के लिए सुल्तान आदिल शाह के सामने भी पालथी जमायी और उसके बाद दक्षिण जाकर नायक बख़्शू की बेटी से राग की शिक्षा ली. शिक्षा पूरी करने के बाद तानसेन ने रीवा राजा रामचंद्र के यहां नौकरी कर ली. राजा रामचंद्र तानसेन के बड़े प्रशंसक थे. कहा जाता है कि एक बार उन्होंने तानसेन का गाना सुनकर उन्हें एक करोड़ दाम इनाम के तौर पर दिया था.
अकबर ने बनाया था राजा रामचन्द्र पर दबाव
तानसेन को हर हाल में अकबर अपने दरबार की शोभा बनाना चाहता था. इसके लिए अकबर ने रीवा रियासत के राजा रामचन्द्र पर हर तरह का दबाव बनाया. ऐसे में रामचन्द्र ने खीझकर तानसेन को पालकी में बैठाकर विदा कर दिया. इसके बाद ही अकबर ने खुश होकर रीवा रियासत को मुगलों की तोपें भेंट की. यह तोपें फिलहाल रीवा के किला परिसर में शान से खड़ी हैं. बता दें कि रीवा राज्य ने बड़ी लड़ाइयां तो नहीं लड़ी, लेकिन इन तोपों को सुरक्षा के लिए हमेशा तैयार रखा गया.
अकबर के दरबार में तानसेन को ख़ास दर्जा
अकबर के दरबार में तानसेन को एक ख़ास दर्जा दिया गया था. तानसेन हमेशा अकबर के ख़ास बने रहे. तानसेन ने अकबर की पसंद के हिसाब से दरबारी कानहरा, दरबार कल्याण, दरबारी असावरी और शहाना जैसे राग सृजित किए. इसके अलावा ‘मियां की मल्हार’, ‘मियां की तोड़ी’, और ‘मियां की सारंग’ भी तानसेन के बनाये राग हैं. तानसेन ने संगीत कला की जो सेवा की है, उसके बार में लिखा गया है, “उन्होंने शास्त्रीय संगीत को नया रस, नई मिठास और नया बांकपन प्रदान किया था. उन्होंने रागों में खूब आकर्षक प्रयोग किए और ये राग उन प्रयोगों के साथ अब उनके नाम से जाने जाते हैं. तानसेन ने अकबर के कहने पर 16 हज़ार रागों और 360 तालों का गहन अध्ययन किया और व्यापक सोच विचार के बाद मात्र 200 मूल राग और 92 मूल ताल को स्थापित रखा और सभी को हटा दिया. इनमें से दरबारी और शाम कल्याण ऐसे राग हैं जो अकबर को विशेष तौर पर बहुत पसंद थे.
तानसेन की ज़िंदगी पर बन चुकी हैं फिल्में
तानसेन की ज़िंदगी पर उपमहाद्वीप में कई फ़िल्में बन चुकी हैं. इस विषय पर बनने वाली पहली फ़िल्म 1943 में आयी थी जिसमें केएल सहगल ने तानसेन की भूमिका निभायी थी. इस फ़िल्म के निर्देशक जयंत देसाई थे. साल 1990 में पाकिस्तान टेलीविज़न ने इस विषय पर एक टीवी सीरियल भी बनाया जिसके प्रोड्यूसर ख़्वाजा नजमुल हसन और लेखिका हसीना मोईन थीं. तानसेन नाम की पत्रिका भी उसी स्वर्ण काल की एक कृति है. इसमें तानसेन के उन रागों और तालों की अलग-अलग विशेषताएं और गाने के तरीक़े बताए गए हैं. दरअसल, तानसेन ने पुराने रागों को नया रूप ही नहीं दिया बल्कि ख़ुद भी बहुत सी रागिनियां सृजित कीं जो उनके नाम से मशहूर हैं. जानने वाली बात यह भी है कि ध्रुपद गायकी में तानसेन को ग्वालियर घराने का न सिर्फ़ बड़ा प्रतिनिधि स्वीकार किया जाता है बल्कि बहुतेरे इतिहासकारों ने उन्हें ग्वालियर घराने का संस्थापक भी माना है.
तानसेन की रीवा रियासत से जुड़ी जानिकारियों के लिए देखिए ये वीडियो।।