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जनजातीय भारत में स्वास्थ्य सेवाएं कहां हैं?

भारत की जनसंख्या का लगभग 8.6% हिस्सा जनजातीय समुदायों से आता है. ये समुदाय देश की विविधता और संस्कृति के महत्वपूर्ण हिस्से हैं, लेकिन जब बात स्वास्थ्य सेवाओं की आती है, तो ये अब भी काफी पीछे हैं. सरकारी आंकड़ों और रिपोर्टों के अनुसार, जनजातीय समुदायों की स्वास्थ्य स्थिति अब भी राष्ट्रीय औसत से खराब बनी हुई है.

जनजातीय महिलाओं की सेहत: सुधार तो है, पर काफी नहीं
जनजातीय महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान उचित स्वास्थ्य देखभाल मिलना एक चुनौती बना हुआ है. 2015-16 से 2019-21 के बीच इन महिलाओं को प्रसव-पूर्व देखभाल (ANC) मिलने में कुछ सुधार जरूर हुआ है – यह 72.9% से बढ़कर 81.8% हो गया है. हालांकि, यह अब भी राष्ट्रीय औसत 85.1% से कम है.
गर्भवती महिलाओं का पंजीकरण 94.3% तक पहुंच गया है, जो एक सकारात्मक संकेत है. लेकिन संस्थागत प्रसव की स्थिति को देखें तो जनजातीय समुदाय अब भी निजी अस्पतालों से दूर हैं – केवल 12% प्रसव ही निजी अस्पतालों में होते हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत 25% है.

बच्चों की सेहत और मृत्यु दर: चिंता बनी हुई है
बच्चों की मृत्यु दर किसी भी देश की स्वास्थ्य प्रणाली का पैमाना होती है. भारत में प्रति 1,000 जन्मों पर जनजातीय बच्चों की मृत्यु दर 28.8 है, जबकि राष्ट्रीय औसत 24.9 है. हर 20 में से एक जनजातीय बच्चा पांच वर्ष की उम्र से पहले ही दम तोड़ देता है.
टीकाकरण की स्थिति में सुधार हुआ है – 2015-16 में जहां केवल 55.8% बच्चों को पूरा टीका मिला था, अब यह 76.5% तक पहुंच गया है. खसरे के टीके की कवरेज भी 86.7% तक पहुंची है, जो राष्ट्रीय औसत (87.9%) के करीब है.

कुपोषण और एनीमिया: छुपी हुई महामारी
जनजातीय बच्चों में स्टंटिंग की दर अभी भी 40.9% है, जबकि राष्ट्रीय औसत 35.5% है. 15 से 49 वर्ष की जनजातीय महिलाओं में एनीमिया की दर 64.6% तक पहुंच गई है, जो गंभीर चिंता का विषय है. यह समस्या सिर्फ पोषण की नहीं, बल्कि जागरूकता की भी है.
कई महिलाएं आयरन और फोलिक एसिड की गोलियां नहीं लेतीं, क्योंकि उन्हें भ्रम होता है कि इससे स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है. यह साफ दिखाता है कि स्वास्थ्य सेवाओं के साथ-साथ शिक्षा और जागरूकता भी ज़रूरी है.

नई बीमारियां: बदलती जीवनशैली का असर
पहले जनजातीय समुदाय प्राकृतिक और संतुलित आहार पर निर्भर थे. लेकिन अब सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) से मिलने वाला पॉलिश्ड चावल और बाजार का प्रोसेस्ड फूड उनकी थाली में आ गया है. इसका असर साफ दिखता है – हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज और मोटापे जैसी बीमारियां इन समुदायों में बढ़ रही हैं.

डॉक्टरों की भारी कमी और दुर्गम स्वास्थ्य सेवाएं
जनजातीय इलाकों में स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों की भारी कमी है. PHCs में डॉक्टरों की अनुपस्थिति 23.3% तक पहुंच चुकी है. ग्रामीण क्षेत्रों में कई बार लोगों को अस्पताल तक पहुंचने के लिए 5 से 80 किलोमीटर का सफर करना पड़ता है.
भारत में जनजातीय समुदायों की सेहत अब भी एक उपेक्षित क्षेत्र है. केवल योजनाएं और घोषणाएं काफी नहीं हैं – ज़रूरत है ज़मीनी बदलाव की. बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं, प्रशिक्षित डॉक्टर, पोषण कार्यक्रम और जागरूकता अभियान ही इस संकट से बाहर निकाल सकते हैं.