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सुपारी के खिलौने: सरकार से मदद या पारिवारिक मतभेद, क्यों अपनी पहचान खो रही ये हस्त शिल्पकला?

सुपारी के खिलौने

पूरी दुनिया में इकलौते, रीवा जिले में बनते हैं सुपारी के खिलौने. यहां सुपारी के खिलौने बनाने की शुरूआत साल 1932 में राजा गुलाब सिंह के दरबार से हुई थी. धीरे-धीरे ये खिलौना पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक पहुंचा और इसे राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली. यह खिलौना देखने में जितना खूबसूरत है असल में उतना ही नाजुक होता है. एक छोटे से खिलौने को बनाने के लिए कई घंटों जमीन पर बैठकर सुपारी को मशीन और औजारों से तराशा जाता है.

इसे बनाने वाले शिल्पकार बताते हैं कि खिलौने बनाने के लिए बाजार में मिलने वाली सबसे बड़ी सुपारी का चयन किया जाता है. फिर औजारों की मदद से इसके अलग-अलग हिस्से को तराशा जाता है. अंत में तराशे गए सभी हिस्सों को जोड़कर मूर्ती का आकार दिया जाता है. खिलौने या मूर्ति की कीमत उसके आकार पर निर्भर करती है। (सात इंच की कलाकृति के लिए) इनकी कीमत 600 रुपये से ज्यादा हो सकती है.
इतनी मशहूर शिल्पकला लगभग गायब होने की कगार पर है. शिल्पकारों का कहना है कि, इससे घर का खर्च उठा पाना भी मुश्किल है और ऐसे ही चलता रहा तो आगे आने वाली पीढ़ी इस कला को नहीं अपनाएगी और इसका अस्तित्व खत्म हो जाएगा.

शिल्पकार दुर्गेश कुंदेर ने बताया, 1932 से कुंदेर परिवार सुपारी के खिलौने बना रहा है. रीवा के महाराज गुलाब सिंह का दौर था, दरबार में अकसर सुपारी खाया करते थे. सुपारी, लकड़ी की तरह कठोर होती है जिसके कारण खाने के बाद दांतों में फंसती है. राजा गुलाब सिंह ने लकड़ी के खिलौने बनाने वाले कुंदेर परिवार को सुपारी को बुरादे के रूप में करने को कहा, जिससे सुपारी को आसानी से खाया जा सके. यहीं से दुर्गेश कुंदेर के दादा यानी रामसिया कुंदेर ने सुपारी के खिलौने बनाने की शुरुआत की.
अब दुर्गेश का कहना है कि, शिल्प कला को जिंदा बनाए रखने में केवल आखिरी पीढ़ी बची है जो यह काम कर रही है. सरकार से हमारी मदद करने के लिए कोई सहायता नहीं मिल रही है.
वह आगे कहते हैं, आज इस कला की वो परिस्थिति है, अगर आगे भी वैसी ही बनी रहती है, तो मैं युवा पीढ़ी को इसे अपनाने के लिए प्रोत्साहित नहीं करूंगा. मैं नहीं चाहूंगा कि, मेरे बच्चे किसी ऐसी चीज पर काम करके अपनी आंखें खराब करें जो सरकारी मदद या प्रोत्साहन के योग्य ही नहीं है. शिल्पकारों के अनुसार इस काम को करने से मिलने वाले पैसे से घर का गुज़ारा कर पाना भी मुश्किल है.

आखिर क्यों पहचान खो रही ये अनोखी शिल्पकला

जब विंध्य फर्स्ट ने इसका कारण जानने की कोशिश की तो पता चला कि, रीवा में सुपारी का खिलौना बनाने वाले तीन शिल्पकार दुर्गेश कुंदेर, राकेश कुंदेर और अभिषेक कुंदेर हैं. ये तीनों एक ही कुंदेर परिवार के सदस्य हैं, जो अब अलग हो चुके हैं. इनसे बात करने पर पता चला कि अपना अस्तित्व खो रही इस कला के पीछे इनका आपसी मतभेद एक बड़ा कारण है. इनके बीच पारिवारिक मतभेद इतना ज़्यादा है कि, एक दूसरे के बारे में बात करना भी पसंद नहीं करते. अगर ये मिलजुल कर इस शिल्पकला को एक साथ आगे बढ़ाएं तो इनके कारोबार के साथ – साथ कला को भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी उपलब्धि मिल सकती है.

देखिए पूरा वीडियो और सुनिए कैसे पारिवारिक लड़ाई के कारण अस्तित्व खो रही सुपारी शिल्पकला