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Toggleदिवाली आतिशबाजी इतिहास: दिवाली पर क्या पहले भी होती थी आतिशबाजी? जानें कब शुरू हुआ पटाखा जलाना
दिवाली आतिशबाजी इतिहास: दिवाली को दीपावली या “दीपों का त्योहार” कहा जाता है. लेकिन पिछले कुछ दशकों में यह पटाखों का त्योहार बन गया है. हर साल दिवाली पर जब आसमान रंगीन आतिशबाजी से रोशन होता है, तो एक सवाल मन में जरूर उठता है – क्या हमारे पूर्वज भी ऐसे ही पटाखे जलाते थे? आखिर यह परंपरा कब और कैसे शुरू हुई? आइए जानते हैं भारत में पटाखों का पूरा इतिहास.

क्या प्राचीन भारत में थे पटाखे?
वैदिक और पौराणिक संदर्भ
प्राचीन ग्रंथों में आधुनिक पटाखों का उल्लेख नहीं मिलता, लेकिन इन ग्रंथों में ऐसे तत्वों का जिक्र है जो आधुनिक पटाखों जैसे ही उद्देश्य पूरा करते थे. स्कंद पुराण (2.4.9.65-66) में दिवाली की परंपरा का वर्णन है, जहां लोग अपने पूर्वजों (पितरों) के लिए रास्ता रोशन करने के लिए अपने हाथों में उल्का (मशालें) रखते थे.
नीलमत पुराण, जो 6वीं से 8वीं शताब्दी का प्राचीन कश्मीरी ग्रंथ है, में कहा गया है कि मृत पूर्वजों को रास्ता दिखाने के लिए कार्तिक की 14वीं या 15वीं तिथि (दिवाली) पर आतिशबाजी जलाई जानी चाहिए.
शोरारा (बारूद) का प्राचीन ज्ञान
लगभग 2300 साल पहले, कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में शोरारा (अग्निचूर्ण) के बारे में लिखा था, जो “आग पैदा करने वाला पाउडर” था. चाणक्य के अर्थशास्त्र (चौथी शताब्दी ईसा पूर्व) में शोरारे (पोटेशियम नाइट्रेट) के उपयोग का प्रमाण मिलता है, जिसमें ज्वलनशील पाउडर और विस्फोटकों पर चर्चा की गई थी.
इससे भी पुराने ग्रंथों में, जैसे छठी शताब्दी ईसा पूर्व के तमिल ग्रंथ “बोगर एझयिरम” में बोगनाथर द्वारा रॉकेट पाउडर और बारूद सहित विभिन्न यौगिकों को तैयार करने में शोरारे के घोल के उपयोग का उल्लेख किया गया है.
लगभग 1300 साल पहले के एक चीनी पाठ में कहा गया है कि उत्तर-पश्चिम भारत के लोग शोरारे के अस्तित्व से अवगत थे और इसका उपयोग “बैंगनी लपटें” पैदा करने के लिए करते थे. यह संकेत देता है कि लपटें सैन्य उद्देश्यों के बजाय सौंदर्य प्रयोजनों के लिए बनाई गई थीं, जो आधुनिक आतिशबाजी के शुरुआती रूप थे.
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चीन से भारत तक का सफर
बारूद की खोज
पटाखे मूल रूप से दिवाली का हिस्सा नहीं थे. इतिहासकार इनकी शुरुआत प्राचीन चीन से मानते हैं, जहां बांस के टुकड़े आग में डालने पर फंसी हुई हवा की जेबों के कारण फट जाते थे. नौवीं शताब्दी तक, चीनी रसायनशास्त्रियों ने बारूद विकसित कर लिया था, जो शोरारा, सल्फर और कोयले का मिश्रण था, जिसने आधुनिक आतिशबाजी की नींव रखी.
हालांकि, कुछ इतिहासकार मानते हैं कि बारूद का ज्ञान भारत से चीन गया. चीनी स्रोत खुद इस कहानी का पूरी तरह से समर्थन नहीं करते. वास्तव में, वे उल्लेख करते हैं कि भारत से एक बौद्ध भिक्षु अपने साथ 664 ईस्वी के आसपास चीन में बारूद का ज्ञान लेकर आया था.
भारत में पटाखों का आगमन
आतिशबाजी को चीन के साथ व्यापार के माध्यम से भारत में पेश किया गया, संभवतः मध्यकाल के दौरान. इतिहासकार पीके गोड ने 1950 में अपने निबंध “हिस्ट्री ऑफ फायरवर्क्स इन इंडिया बिटवीन 1400 एंड 1900” में लिखा: “दिवाली के उत्सव में आतिशबाजी का उपयोग, जो अब भारत में बहुत आम है, 1400 ईस्वी के बाद अस्तित्व में आया होगा जब भारतीय युद्ध में बारूद का उपयोग किया जाने लगा”.
1443 में, तैमूरी सुल्तान शाहरुख के राजदूत अब्दुर रज्जाक ने विजयनगर के राजा देवराय द्वितीय के दरबार में महानवमी समारोह का वर्णन करते हुए भारत में पटाखों की पहली रिपोर्ट प्रदान की.
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मुगल काल: शाही आतिशबाजी का युग
बादशाहों का शौक
शुरुआत में शाही दरबारों और समृद्ध परिवारों तक सीमित, आतिशबाजी धीरे-धीरे सार्वजनिक दिवाली उत्सवों का हिस्सा बन गई. दिल्ली सल्तनत और मुगल युग के दौरान, आतिशबाजी शाही दरबारों की विशेषता थी, जिसका उपयोग भव्य समारोहों, शादियों और जीत के लिए किया जाता था.
अकबर का योगदान
विद्वानों का मानना है कि मुगलों ने दिवाली के त्योहार के दौरान पटाखे फोड़ने की परंपरा को मजबूत किया. इसका फारसी नाम जश्न-ए-चिराघान, अकबर की मुगल दरबार में समावेश की व्यापक धार्मिक नीति का हिस्सा बन गया. त्योहार के दौरान आगरा का किला पूरी तरह से रोशनी से जगमगाता था, और रोशन दीवारें कई किलोमीटर तक दिखाई देती थीं. आगरा किले के सामने खुली जगह में ऐसी आतिशबाजी होती थी जो पूरे शहर को चकाचौंध कर देती थी.
शाही खर्च और समारोह
17वीं सदी के बीजापुर के शासक आदिल शाह के विवाह समारोह में केवल आतिशबाजी पर 80,000 रुपये खर्च किए गए. यह उस समय की विशाल राशि थी, जो शाही दरबारों में आतिशबाजी के महत्व को दर्शाती है.
औरंगजेब के युग में भी आतिशबाजी का व्यापार फल-फूल रहा था, जिसे ब्रिटिश इतिहासकार विलियम फ्रेजर ने अपनी 1700 की डायरी में दर्ज किया. विलियम डेलरिम्पल ने “द लास्ट मुगल” में चांदनी चौक को 1857 से पहले की विशाल आतिशबाजी उद्योग का घर बताया, जहां लगभग 10,000 कारीगर काम करते थे.
मराठा काल: जनसाधारण के लिए पटाखे
लोकप्रियकरण की शुरुआत
मराठा, जो दक्कन में धीरे-धीरे शक्ति प्राप्त कर रहे थे, ने दिवाली और अन्य उत्सव के अवसरों पर पटाखे फोड़ने की प्रथा जारी रखी. महादजी सिंधिया के पेशवा सवाई माधवराव को संबोधन में कोटा, राजस्थान में दिवाली उत्सव का विवरण मिलता है, जिसमें ‘दारूची लंका’ या आतिशबाजी की लंका का उल्लेख है, जहां रामायण के विभिन्न छोटे पात्रों की छवियां आतिशबाजी प्रदर्शन के लिए बारूद से तैयार की जाती हैं.
18वीं सदी का बदलाव
18वीं शताब्दी तक आतिशबाजी का उपयोग केवल राजघरानों तक सीमित था. यह समृद्धि और भव्यता का प्रतीक था. लेकिन जब मराठा शासकों ने आम जनता के लिए आतिशबाजी प्रदर्शन आयोजित करना शुरू किया, तब जनसाधारण में इसका चलन शुरू हुआ.
आधुनिक युग: सिवाकासी की कहानी
स्वतंत्रता के बाद का विकास
भारत की पहली आतिशबाजी फैक्ट्री 19वीं शताब्दी के दौरान कलकत्ता में स्थापित की गई थी. संस्थापक गोपाल महिंद्रम नाम के एक व्यक्ति थे. लेकिन भारतीय उद्योगों ने स्वतंत्रता के बाद ही पटाखों का निर्माण शुरू किया जब पहली आतिशबाजी फैक्ट्री कोलकाता में स्थापित हुई.
सिवाकासी: पटाखों की राजधानी
आज, भारत का आतिशबाजी उद्योग तमिलनाडु के सिवाकासी के वर्चस्व में है, जो 6,000 करोड़ रुपये का टर्नओवर उत्पन्न करता है. यह क्षेत्र देश की 90 प्रतिशत आतिशबाजी का उत्पादन करता है, जिसमें 8,000 से अधिक पंजीकृत कारखाने हैं जो 300,000 से अधिक लोगों को सीधे रोजगार देते हैं. अप्रत्यक्ष रोजगार 500,000 तक फैला है.
सिवाकासी के दो व्यवसायी भाइयों – अय्या नादर और शनमुगा नादर – ने इस उद्योग को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया. उन्होंने मार्केटिंग की जीनियस दिखाई और दिवाली को पटाखों से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
क्या रामायण में है पटाखों का उल्लेख?
तुलसीदास की रामचरितमानस
तुलसीदास की रामचरितमानस में अयोध्या में पटाखे फोड़े जाने का कोई उल्लेख नहीं है. पृष्ठ 839 पर एक विशिष्ट श्लोक में कहा गया है: “आकाश से आवाज आई, अयोध्या की पूरी नगरी फूलों से सजाई गई थी, और सड़कों पर एक अनूठी सुगंध बिखेर दी गई थी.” लेकिन पटाखों का कोई उल्लेख नहीं है.
आनंद रामायण का दृष्टिकोण
आनंद रामायण, जो वाल्मीकि रामायण का विस्तार है, में प्रकाश, ध्वनि और मशालों से जुड़े दिवाली समारोहों का उल्लेख है. हालांकि आलोचकों ने इसे 15वीं शताब्दी का बाद का काम बताकर कम महत्व दिया है, लेकिन हिंदू परंपरा में इसे विभिन्न संप्रदायों द्वारा स्वीकार किया गया है.
प्राचीन परंपरा का विकास
प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ‘उल्का’ संभवतः साधारण मशालें थीं – आज के पटाखों के पूर्वज. वे शोर करते थे, प्रकाश उत्पन्न करते थे, और धार्मिक और सामाजिक दोनों उद्देश्यों की पूर्ति करते थे. आज भी ओडिशा में दिवाली के दौरान लोग कौनरिया काठी का उपयोग करते हैं – एक पारंपरिक मशाल जो चटकने वाली आवाज करती है और चिंगारियां उत्सर्जित करती है, बिल्कुल प्राचीन उल्काओं की तरह.
दिवाली और पटाखों का धार्मिक संबंध
प्रकाश और ध्वनि का प्रतीकवाद
दिवाली को “दीपावली” कहा जाता है जिसका अर्थ है “दीपों की पंक्ति”. यह अंधकार पर प्रकाश की, बुराई पर अच्छाई की, अज्ञान पर ज्ञान की विजय का प्रतीक है. पटाखों की रोशनी और आवाज को भी इसी भावना से जोड़ा जाता है.
वैज्ञानिक कारण
भारत का मुख्य रूप से कृषि प्रधान समाज, जिसमें चावल मुख्य फसल है, शरद ऋतु के महीनों में चुनौतियों का सामना करता है जब छोटे पत्ती फुदके फसल के लिए एक महत्वपूर्ण खतरा पैदा करते हैं. सल्फर (गंधक) का पारंपरिक रूप से पटाखों के उपयोग के माध्यम से इन कीटों को नियंत्रित करने के लिए उपयोग किया जाता था.

पूर्वजों को रास्ता दिखाना
हिंदू मान्यता के अनुसार, दिवाली पर पितरों (पूर्वजों) की आत्माएं धरती पर आती हैं. उन्हें रास्ता दिखाने के लिए दीये और मशालें जलाई जाती हैं. पटाखों की रोशनी भी इसी उद्देश्य से जोड़ी जाती है.
बुराई को दूर भगाना
प्राचीन मान्यता के अनुसार, तेज आवाज और प्रकाश से बुरी शक्तियां दूर भागती हैं. पटाखों की धमाके की आवाज को इसी परंपरा से जोड़ा जाता है.
पटाखों का आर्थिक महत्व
रोजगार का विशाल स्रोत
भारत की आतिशबाजी इंडस्ट्री लाखों लोगों को रोजगार देती है. सिवाकासी में ही 8 लाख से ज्यादा लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस उद्योग से जुड़े हैं. दिवाली का सीजन इन परिवारों के लिए साल भर की आय का सबसे बड़ा स्रोत है.
निर्यात और व्यापार
भारतीय आतिशबाजी का निर्यात दुनिया के कई देशों में होता है. वैश्विक बाजार में भारतीय पटाखों की अच्छी मांग है, जो देश के लिए विदेशी मुद्रा कमाने का जरिया है.
परंपरागत कला और कौशल
पटाखा बनाना एक कला है जो पीढ़ियों से चली आ रही है. कारीगरों के पास विशेष कौशल होता है जो उन्हें अपने पूर्वजों से विरासत में मिला है.
पर्यावरण और स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं
प्रदूषण का मुद्दा
सुप्रीम कोर्ट ने 18 से 21 अक्टूबर तक दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ग्रीन क्रैकर्स की बिक्री और उपयोग की अनुमति दी है. न्यायालय ने त्योहारों को मनाने और पर्यावरण की रक्षा के बीच संतुलित दृष्टिकोण अपनाने के महत्व पर जोर दिया.
यह फैसला ऐसे समय में आया है जब दिल्ली की वायु गुणवत्ता चिंताजनक रूप से खराब है, विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा अनुशंसित सुरक्षित स्तर से 25 से 30 गुना खराब.
ग्रीन क्रैकर्स का विकास
2020 में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (NGT) द्वारा दिवाली पर पटाखों की बिक्री और उपयोग पर प्रतिबंध लगाने के बाद, वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) ने “ग्रीन क्रैकर्स” विकसित किए जो कम प्रदूषणकारी कच्चे माल का उपयोग करते हैं.
ग्रीन क्रैकर्स धूल के उत्पादन को दबाकर उत्सर्जन को कम करते हैं; उनका उत्सर्जन 30% कम है और पारंपरिक पटाखों के 160 डेसिबल से अधिक की तुलना में 110-125 डेसिबल की कम तीव्रता के भी हैं.
प्रदूषण का वास्तविक स्रोत
आईआईटी-कानपुर द्वारा किए गए अध्ययन से पता चलता है कि पटाखों के कारण होने वाले प्रदूषण का पैमाना निर्माण धूल, वाहन उत्सर्जन और खराब बुनियादी ढांचे जैसे अन्य स्रोतों की तुलना में अपेक्षाकृत छोटा है.
दिवाली मनाने के बदलते तरीके
परंपरा और आधुनिकता का संगम
आज की पीढ़ी पर्यावरण के प्रति जागरूक है. बहुत से लोग अब कम पटाखे जलाते हैं या सिर्फ ग्रीन क्रैकर्स का उपयोग करते हैं. कुछ लोग पटाखों की जगह दीये, लालटेन और इलेक्ट्रॉनिक लाइट्स को प्राथमिकता दे रहे हैं.
दीयों की वापसी
बहुत से परिवार अब पारंपरिक मिट्टी के दीयों की तरफ लौट रहे हैं. घरों को दीयों से सजाना, रंगोली बनाना, और परिवार के साथ समय बिताना – यह दिवाली का असली सार है.

लेजर शो और इको-फ्रेंडली विकल्प
कई शहरों में अब लेजर शो आयोजित किए जाते हैं जो पटाखों का पर्यावरण-अनुकूल विकल्प हैं. फूलों की आतिशबाजी, इलेक्ट्रॉनिक आतिशबाजी जैसे नए विकल्प भी लोकप्रिय हो रहे हैं.
क्षेत्रीय परंपराएं और विविधता
उत्तर भारत
उत्तर भारत में पटाखों का चलन सबसे ज्यादा है. यहां दिवाली की पूरी रात आतिशबाजी होती है. लक्ष्मी पूजन के बाद पटाखे जलाने की परंपरा है.
दक्षिण भारत
दक्षिण भारत, खासकर तमिलनाडु में, दिवाली सुबह जल्दी मनाई जाती है. तेल से स्नान, नए कपड़े पहनना, और मंदिर जाना मुख्य रीति-रिवाज हैं. पटाखे जलाए जाते हैं लेकिन जोर प्रकाश और परिवार के साथ समय बिताने पर होता है.
पूर्वी भारत
पश्चिम बंगाल में दिवाली के साथ काली पूजा भी मनाई जाती है. ओडिशा में कौनरिया काठी जलाने की प्राचीन परंपरा आज भी जीवित है.
पश्चिमी भारत
गुजरात और राजस्थान में दिवाली नए साल की शुरुआत है. व्यापारी नई बहियां शुरू करते हैं और लक्ष्मी पूजन करते हैं. महाराष्ट्र में फराल (विशेष मिठाइयां) बनाने की परंपरा है.
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पटाखों की विविधता
पारंपरिक पटाखे
फुलझड़ी: सबसे लोकप्रिय और सुरक्षित, बच्चों की पसंदीदा. इससे चमकीली चिंगारियां निकलती हैं.
अनार: जमीन पर रखकर जलाया जाता है और रंगीन चिंगारियां ऊपर की ओर उड़ती हैं.
चक्री: गोल आकार में घूमती है और रंगीन प्रकाश बिखेरती है.
रॉकेट: आसमान में ऊंचाई तक जाती है और वहां फूटती है.
बम और लड़ी: तेज आवाज करने वाले पटाखे जो ध्वनि प्रदूषण का मुख्य कारण हैं.
आधुनिक आतिशबाजी
केक बॉक्स: कई शॉट्स का कॉम्बिनेशन जो एक के बाद एक आसमान में फूटते हैं.
फ्लावर पॉट: जमीन पर स्थिर रहकर विभिन्न रंगों की चिंगारियां निकालते हैं.
पेंसिल रॉकेट: छोटे रॉकेट जो सीटी बजाते हुए ऊपर जाते हैं.
इलेक्ट्रिक क्रैकर्स: हाल के वर्षों में विकसित, ये बैटरी या बिजली से चलते हैं और बिना धुएं के रोशनी करते हैं.
विश्व में आतिशबाजी की परंपरा
चीन: नए साल का जश्न
चीन में चीनी नव वर्ष पर सबसे बड़ी आतिशबाजी होती है. लाल पटाखे बुरी आत्माओं को दूर भगाने के लिए जलाए जाते हैं.
अमेरिका: स्वतंत्रता दिवस
4 जुलाई को अमेरिकी स्वतंत्रता दिवस पर पूरे देश में भव्य आतिशबाजी प्रदर्शन होते हैं.
यूरोप: नए साल की रात
यूरोप के कई देशों में नए साल की पूर्व संध्या पर आतिशबाजी की परंपरा है.
भारत की विशिष्टता
भारत में पटाखों का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व सबसे गहरा है. यहां आतिशबाजी सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि आध्यात्मिक उत्सव का हिस्सा है.
दीवाली की असली कहानी: राम से गुरु हरगोविंद तक
सुरक्षा और सावधानियां
पटाखे जलाते समय ध्यान रखें
सुरक्षित दूरी: हमेशा पटाखों से सुरक्षित दूरी बनाए रखें.
बच्चों की निगरानी: बच्चों को बिना देखरेख के पटाखे न जलाने दें.
खुली जगह: बंद या भीड़-भाड़ वाली जगह पर पटाखे न जलाएं.
पानी की व्यवस्था: आपातकाल के लिए पानी की बाल्टी पास रखें.
पुराने पटाखे: पिछले साल के बचे पटाखे खतरनाक हो सकते हैं, इन्हें सावधानी से जलाएं.
स्वास्थ्य सावधानियां
अस्थमा मरीज: सांस की समस्या वाले लोगों को धुएं से दूर रहना चाहिए.
पालतू जानवर: तेज आवाज से जानवर डर जाते हैं, उनका ध्यान रखें.
बुजुर्ग: हृदय रोगियों और बुजुर्गों को तेज आवाज से परेशानी हो सकती है.
भविष्य की दिशा: संतुलित दृष्टिकोण
परंपरा को बचाना
पटाखे हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा बन चुके हैं. पूरी तरह प्रतिबंध लगाने की बजाय जिम्मेदार उपयोग को बढ़ावा देना बेहतर है.
पर्यावरण की रक्षा
ग्रीन क्रैकर्स, कम समय के लिए आतिशबाजी, और सीमित मात्रा में पटाखे जलाना – ये सभी उपाय पर्यावरण को बचाने में मदद करते हैं.
रोजगार और अर्थव्यवस्था
लाखों परिवारों की आजीविका इस उद्योग से जुड़ी है. इसे पूरी तरह बंद करने की बजाय, इको-फ्रेंडली विकल्पों की ओर बढ़ना सही रास्ता है.
शिक्षा और जागरूकता
लोगों को जिम्मेदार तरीके से उत्सव मनाने की शिक्षा देना जरूरी है. सोशल मीडिया और स्कूलों के माध्यम से जागरूकता फैलाई जा सकती है.
निष्कर्ष: हजारों साल की यात्रा
पटाखों का इतिहास भारत के सांस्कृतिक विकास की दिलचस्प कहानी है. प्राचीन काल के ‘शोरारे’ से लेकर आधुनिक ग्रीन क्रैकर्स तक, यह यात्रा हजारों साल पुरानी है.
हालांकि पटाखे मूल रूप से दिवाली का हिस्सा नहीं थे, लेकिन पिछली कई सदियों में ये हमारी परंपरा का अभिन्न अंग बन गए हैं. चीन से शुरू होकर, मुगल दरबारों से होते हुए, आज ये आम भारतीय के उत्सव का हिस्सा हैं.
आज जब हम पर्यावरण और स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हैं, तो जरूरत है संतुलित दृष्टिकोण की. पूरी तरह प्रतिबंध न तो व्यावहारिक है और न ही न्यायसंगत. इसकी बजाय, हम सीमित और जिम्मेदार तरीके से पटाखे जला सकते हैं, ग्रीन क्रैकर्स का उपयोग कर सकते हैं, और दिवाली के असली सार – प्रकाश, खुशी, और सद्भावना – पर ज्यादा ध्यान दे सकते हैं.
आखिरकार, दिवाली का असली अर्थ है अंधकार पर प्रकाश की विजय. यह प्रकाश दीयों से हो या पटाखों से, मुख्य बात है हमारे मन में ज्ञान और प्रेम का प्रकाश जलाना.
इस दिवाली, आइए हम परंपरा का सम्मान करें, पर्यावरण की रक्षा करें, और एक उज्जवल भविष्य की ओर बढ़ें. शुभ दीपावली!