भारत की फूड डिलीवरी इंडस्ट्री में अब एक नया खिलाड़ी उतर चुका है रैपिडो. टू-व्हीलर बाइक टैक्सी सर्विस से पहचान बनाने वाला यह स्टार्टअप अब खाने की डिलीवरी के बिज़नेस में हाथ आज़मा रहा है. सवाल यह है कि क्या रैपिडो इस प्रतिस्पर्धी मार्केट में अपनी जगह बना पाएगा या बाकी कंपनियों की तरह यह भी इतिहास बनकर रह जाएगा?
रैपिडो क्या है और अब क्या करने जा रहा है?
रैपिडो एक भारतीय यूनिकॉर्न स्टार्टअप है, जो देशभर के 100 से ज़्यादा शहरों में टू-व्हीलर राइडिंग सर्विस देता है. अब यह कंपनी फूड डिलीवरी की दुनिया में कदम रख रही है. हाल ही में रैपिडो को दो बड़ी फंडिंग मिली हैं, एक प्रोसस से 30 मिलियन डॉलर की और दूसरी वेस्टब्रिज कैपिटल की अगुवाई में 200 मिलियन डॉलर की. कंपनी का लक्ष्य है कि वह 2025 तक 500 शहरों में अपनी सर्विस शुरू कर दे.
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रैपिडो का बिज़नेस मॉडल क्या है?
फूड डिलीवरी के लिए रैपिडो ने एक सस्ता और सरल मॉडल अपनाया है. रैपिडो रेस्तरां से एक फिक्स्ड डिलीवरी फीस चार्ज करेगा:
400 रुपए से कम के ऑर्डर पर 25
400 रुपए से ज़्यादा के ऑर्डर पर 50
यह फीस लगभग 8-15% कमीशन के बराबर है, जबकि ज़ोमैटो और स्विगी जैसे खिलाड़ी 16-30% तक कमीशन लेते हैं. इससे रैपिडो रेस्तरां मालिकों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहा है.
रेस्तरां मालिकों की नाराज़गी: रैपिडो के लिए मौका
भारत में कई रेस्तरां मालिक लंबे समय से ज़ोमैटो और स्विगी की ऊंची फीस और सख्त नियमों से परेशान हैं. नेशनल रेस्तरां एसोसिएशन ऑफ इंडिया (NRAI), जो देश के 5 लाख से ज़्यादा रेस्तरां का प्रतिनिधित्व करता है, रैपिडो के साथ मिलकर एक ऐसा मॉडल बनाना चाहता है जो रेस्तरां के लिए ज़्यादा फायदेमंद और टिकाऊ हो.
दिल्ली के एक रेस्तरां मालिक वंदित मलिक ने बताया कि उन्हें ज़ोमैटो पर हर ऑर्डर पर ₹30 से ज़्यादा खर्च करना पड़ता है, जिससे उनकी कमाई नाममात्र रह जाती है. वहीं, NCR का एक रेस्तरां ‘सैफ्रोमा’ ने ज़ोमैटो से नाता तोड़ लिया क्योंकि उन्हें भुगतान समय पर नहीं मिल रहा था.
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फूड डिलीवरी मार्केट बड़ा है, लेकिन मुश्किल भी
भारत का फूड डिलीवरी मार्केट तेज़ी से बढ़ रहा है. स्टेटिस्टा के अनुसार, 2025 तक इस सेक्टर का रेवेन्यू $54.97 बिलियन तक पहुंचने की उम्मीद है, और 2030 तक यह आंकड़ा $102.43 बिलियन हो सकता है. 2030 तक 36.3 करोड़ यूज़र्स इस सर्विस का हिस्सा होंगे.
हालांकि, इसके बावजूद यह मार्केट बेहद चुनौतीपूर्ण है. यहां औसतन ऑर्डर की वैल्यू (AOV) कम है. ज़ोमैटो के लिए ₹613 और स्विगी के लिए 499 रुपए. ऊपर से ट्रैफिक, मौसम, और डिलीवरी पार्टनर्स की कमी लागत को और बढ़ा देती है.
इतिहास कहता है: इस मैदान में कई दिग्गज हार चुके हैं. भारत में इससे पहले भी कई बड़े ब्रांड फूड डिलीवरी में उतरे और असफल हुए. Uber Eats ने 2017 में एंट्री ली, लेकिन मार्केट में सिर्फ 12% हिस्सेदारी हासिल कर पाया और अंततः 2020 में ज़ोमैटो ने इसे खरीद लिया.
Amazon Food ने 2020 में शुरुआत की, लेकिन प्रमोशन की कमी और रणनीतिक अस्पष्टता के कारण यह 2022 में बंद हो गया. इससे साफ है कि सिर्फ पैसा और नाम ही काम नहीं आता, फूड डिलीवरी मार्केट में सर्वाइव करने के लिए कुछ अलग और टिकाऊ करना पड़ता है.
ज़ोमैटो और स्विगी का दबदबा क्यों है?
2024-25 की पहली तिमाही में ज़ोमैटो के पास 58% और स्विगी के पास 42% मार्केट शेयर था. दोनों कंपनियों ने पिछले कुछ वर्षों में अपना डिलीवरी नेटवर्क, यूज़र डेटा और टेक्नोलॉजी इतनी मजबूत कर ली है कि नए खिलाड़ी इन्हें टक्कर नहीं दे पा रहे हैं. ज़ोमैटो का IPO और ब्लिंकिट जैसी सर्विसेज़ ने उसे और भी मज़बूत बना दिया है. वहीं स्विगी का एक्सपीरियंस और सर्विस क्वालिटी उसे स्थिर बनाए हुए है.
रैपिडो के सामने मौके और चुनौतियां
रैपिडो के पास एक मजबूत टू-व्हीलर नेटवर्क है, जिससे वह छोटी दूरी की डिलीवरी तेज़ी से कर सकता है. उसकी डिलीवरी फीस भी कम है, जो रेस्तरां को लुभा सकती है. लेकिन यह सब काफी नहीं है. रैपिडो को टेक्नोलॉजी में निवेश करना होगा, ऐप को स्थिर और यूज़र फ्रेंडली बनाना होगा, और डिलीवरी पार्टनर्स को अच्छे इंसेंटिव देकर साथ बनाए रखना होगा. अगर रैपिडो भी बाकी कंपनियों की तरह सिर्फ नकल करता है, तो उसका हश्र भी वही हो सकता है जो पहले असफल हुए ब्रांड्स का हुआ.
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