पत्रकारिता जगत की हस्ति कहे जाने वाले एक बड़े क्रांतिकारी पत्रकार बाबूराव विष्णु पराड़कर के पौत्र आलोक पराड़कर जी सीधी के विंध्य इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में आए हुए थे. जहां उन्होंने विंध्य फर्स्ट की टीम से खास बातचीत की. इस खास बातचीत में उन्होंने भारत में साहित्य और संस्कृति को लेकर जो उतार-चढ़ाव देखने को मिल रहे हैं उस पर विस्तृत चर्चाएं किए. बाबूराव विष्णु पराड़कर ने अपना पूरा जीवन स्वाभिमान के साथ लोगों के हित में लगाया. उन्ही के विचारों से प्रेरित होकर उनके पौत्र आलोक पराड़कर भी उसी राह पर चल रहे हैं. आलोक पराड़कर एक संस्कृत पत्रकार हैं और वर्तमान समय में वह एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में काम कर रहे हैं.
सवाल: पत्रकारिता के क्षेत्र में आपकी जर्नी कैसे शुरू हुई?
जबाव: पत्रकारिता के क्षेत्र में मैंने सबसे पहली शुरुआत आज अखबार से की. आज अखबार को मेरे दादा जी ने ही स्थापित किया था. जब मै कॉलेज में पढ़ता था तब मैं कॉलेज के कार्यक्रम की ही न्यूज बना के ले गया था. तब वहां के संपादक ने मुझे कहा कि आप रोज कहीं न कहीं से खबर लेकर आया करो. फिर मैने वहां काम करना शुरु किया और लगातार दस साल तक मैं वहीं काम किया. उसके बाद हमने अमर उजाला, हिंदुस्तान टाइम्स, जनसत्ता जैसे कई बड़े अखबारों में काम किया. इसके बाद हमने साहित्यिक और सांस्कृतिक पत्रकारिता करने की शुरुआत की. आलोक जी कहते हैं कि मुझे भी अपने दादा जी की तरह समाज की सेवा करना था. इसलिए मै स्वतंत्र पत्रकारिता करना शुरु कर किया और इस समय मैं अपनी पत्रिका नादरंग का संपादक हूं.
सवाल: मराठी भाषा से हिंदी भाषा की ओर आना कैसे संभव हुआ?
जवाब: मेरा बचपन से ही हिंदी भाषा से अधिक जुड़ाव था और मेरे जीवन की शुरुआत उत्तरप्रदेश से हुई है. इसलिए मुझे हिंदी बोलने में कोई दिक्कत नहीं हुई. मेरे दादा जी का तो हिंदी भाषा स्थापित करने में ही बड़ा योगदान रहा है. मेरे दादा जी बाबूराव विष्णु पराड़कर महाराष्ट्र में भले ही रहे हो लेकिन उनका सारे लेख हिंदी में ही रहते थे. इस प्रकार मुझे हिंदी बोलने में कोई परेशानी नहीं हुई.
सवाल : ‘अजूबे की बेचैनी’ कविता का शीर्षक आपने सोच के दिया ?
जवाब: सबसे पहले मैं दो पंक्तियां आपको सुनना चाहूंगा. “इन दिनों बेचैनी से भरा रहता हूं सुबह उठता हूं तो खुद को पता हूं बाजार में। ढेरों रंग विरंगे सामान बिखरे हैं चारों ओर, और मैं जानता हूं कि इनसे से ज्यादा समान की मुझे जरूरत नहीं है।“ यह शीर्षक मैंने चारों ओर फैले बाजारवाद को लेकर लिखा हूं. यानी आजकल कहीं भी जाओ चारो ओर केवल बाजारवाद ही हावी होता है. सुबह जब से बिस्तर से उठो तब से लेकर जब तक आप सो नहीं जाते हो तब तक केवल खुद को हाई-फाई दिखाने के चक्कर में हम पैसे फेकते पहते हैं. समाज में फैली इस चाल चलन को देख के मैंने इस कविता का शीर्षक ‘अजूबे की बेचैनी’ दिया हूं.
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